भाग 56 (छप्पन) : मेरी सरकारी नौकरी (सत्य घटनाओ पर आधारित 1970-71 मे घटी घटनाये.) (Part One) प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मेरी शादी हो गयी है. शादी के निमित्त होने वाले कार्यक्रम अच्छी तरह से निपट गये थे. "उलौटे" का कार्यक्रम निपटने के बाद "नयी दुल्हन" उसके मायके नागपूर चली गयी. मुझे मेरी सरकारी नोकरी मे ज्वाईन होना आवश्यक था. अब आगे की घटनाये मेरी यादों के माध्यम से हम देखेंगे.
मेरी शादी तो जुन बारह को हो गयी थी, लेकिन अभी मेरे जिवन को सुस्थापित करने वाली नोकरी मे मुझे ज्वाईन होना बाकी था. उसी दिशा मे, मेरे सब प्रयत्न शुरू थे. मुझे बीस जुन को सरकारी नोकरी मे ज्वाईन होना था. नोकरी के गाँव के बारे मे, मुझे कुछ भी मालुमात नही थी. इसके पहले मैने सिर्फ उस गाँव का नाम ही, सुना था और उस गाँव के बारे मे लोगों के मुँह से "महती" भी सुनने को मिली थी. उस समय, डिपार्टमेंट को जिस कर्मचारी को दंडीत करना होता, तब उसे "धारणी" भेजा जाता था या भेजने का डर बताया जाता था. जिसका उपर कोई "गाॅड फादर" नही होता, उसे भी "धारणी" भेजा जाता था. यह सुनकर मेरी मनस्थिती थोडी द्विधा सी बन गयी थी. इस कारण, नोकरी के उस गाँव जाकर आने को ही, मैने उचित समझा. उस समय मेरे नोकरी के गाँव जाने के लिये दिन मे तिन गाडीया जाती थी. एक प्रायव्हेट बस भी "खंडवा" के लिये जाती थी. दुसरे दिन, वही बस वापिस लौटकर आती थी. उधर जाने वाला, सडक का मार्ग, भी पहाड पर्बतो से होते हुये गया था. मेरे शादी के चार दिन बाद ही, सुबह ग्यारह के प्रायव्हेट बस से, मै नोकरी के गाँव जाने निकल पडा. वह बस शाम चार बजे के दरम्यान "नोकरी के गाँव" पहूची थी. मेरे लिये यह सब इलाखा "अंजाना" और नया था. मेरा कोई भी वहां पहचान वाला नही था. उस दिन स्कूल बंद हो गयी थी. उधर से वापसी मे गाडी भी नही थी. "तुफान के वक्त समुद्री बेट मे फसे मुसाफीर की तरह मेरी स्थिती हो गयी थी". अब जाये तो कहाँ जाये ? वही पर रूककर रात का मुकाम करना मेरे लिये अत्यावश्यक हो गया था. उसी समय मुझे याद आया की, मेरे "जिगरी मित्र का मित्र" वहां के पंचायत समिती मे कार्यरत है. मेरे जैसे "डुबते को तिनके का सहारा" समझकर, मैने उस "मित्र के मित्र" के बारे मे, लोगोंसे पुछताछ कियी. मेरे "अच्छे भाग्य" से वह "मित्र" "वही" पर निकला और "उन लोगोंने" दूर से ही मुझे उस मित्र की रूम भी बता दियी. "जिगरी मित्र के मित्र" को मैने कभी देखा नही था. मुझे सिर्फ उसका नाम मालूम था. उस "मित्र" के घर जाकर कहाँ से शुरू करने पर, "मुझे रात मे ठहरने की सुविधा मिलेगी" ? इसी उधेड बुन मे मैने उस "मित्र" के द्वार पर उसका "नाम" लेकर दस्तक लगाई. उसे इस नाम से पुकारने वाला वहां ऐसा कोई नही था. उसे वहां के लोग "बाबू साहब" नाम से पुकारते थे. मैने उसका नाम लेकर पुकारा. नाम सुनते ही "बाबू साहाब" झटसे ही गेट के पास आ गये.
गेट के पास आने पर "बाबू साहाब" मेरी तरफ प्रश्नार्थक चेहरे से देखने लगे. मै उनके लिये अंजाना था. मैने ही पहल कर के, शुरू मे ही मेरे "जिगरी मित्र" का नाम लेकर, "उसे पहचानते हो क्या बाबू साहाब "? पुछने पर मित्र ने "हाँ" कहकर जबाब दिया और मुझे उनके घरके अंदर बुला लिया. मैने "बाबू साहाब" को मेरे "जिगरी मित्र" का परिचय दिया और हम कितने घनिष्ठ मित्र है, यह भी बताया. तब तक चाय भी आ गयी थी. बात बातमे मैने "बीस तारीख" को हायस्कूल मे "टिचर" के पद पर ज्वाईन होने की बात "बाबू साहाब" को बताई और "आपके घर "जिगरी मित्र" के कहने पर मिलने के लिये आया हूँ" यह बात बताने पर बाबू साहाब ने" मुझे रात भर रूकने के लिये "आग्रह" किया. मै भी वही चाह रहा था. "अंधा क्या मांगे, दो आँखे". मैने भी खुशी से उनको "हाँ" कह डाला. उस दिन की, उन्होने कियी हुयी मेरी "खातिरदारी" को, मै आज तक भुला नही हूँ.
दुसरे दिन सुबह "बाबू साहाब" के घरका चाय नास्ता करने के बाद, मै जल्दी से "हायस्कूल" देखने चला गया. वहां के ऑफिस कर्मचारीयो से मिलकर मै "खंडवा" गाडी आने के पहले ही बस स्टॉप पर पहूच गया. इस तरह नयी नोकरी के गाँव जाकर मै वापिस भी आ गया था. परंतु, आगे की अपनी लढाई अपने ही बलबुते पर हमे लढनी होगी, यह बात मुझे मन मे फिट बैठते दिख रही थी.
To be continued.
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)
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