"मैने जिना सिख लिया" (1) मेरी यादे" से जुडी जिवन की सच्ची घटनाये. भाग 1(वन)

           मेरे प्यारे मित्रो, इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया, वह मनुष्य प्राणी उनके लाईफ को अपने अपने तरिके से ही जिते रहते है. हमारे जिवन के, दिन ब दिन बढते हुये आयु को हम पूरा कर लेते है. कोई भी इससे छुटा नही और कभी छुट भी नही सकेगा. इन बातोसे हर इन्सान जानकर भी अनजान सा बना रहता है. क्योंकी वह, इन बातो से दुःखी नही होना चाहता.             परंतु मेरी "ममेरी बडी बहन" जिसका अभी अभी दस दिन पहले स्वर्गवास हो गया, वह अनपढी रहकर भी हम सब को, "जिंदगी जिने" की सिख देकर स्वर्ग को सिधार गयी. किसी को भी उसने इन बातो की, कभी भनक भी नही आने दियी. मै जब उसके बारे मे सोचता हूँ तो, मुझे मेरे और उसके बचपन के उन दिनो की याद आने लगती है, जब उसकी उम्र  सात आठ साल की और मेरी चार पाँच की होगी. उस समय मुझे छोटी दो बहने थी. एक की उम्र तीन साल की तो दुसरी एक साल की होगी. उन दिनो मेरे घरमे बच्चों की देखभाल के लिये कोई भी बडा बुजुर्ग सहाय्यक  नही था. मेरी इस बडी ममेरी बहन की बचपन मे ही माँ गुजरने के कारण, मेरी माँ उसे अपने साथ, घर ले आयी...

मेरी यादें (Meri Yaden) भाग 54 (चौपन) :- मेरी शादी (सत्य घटनाओ पर आधारित 1970 के दरम्यान की घटनाये) (Part Three)

     मेरी यादें  (Meri Yaden) भाग 54 (चौपन) :- मेरी शादी (सत्य घटनाओ पर आधारित 1970 के दरम्यान की घटनाये)  (Part Three)

           प्यारे पाठको, पिछले भागमे हमने देखा की, मै दुल्हा बनकर बँड बाजा बारातियो के साथ दुल्हन के मंडप मे पहूँच गया था. स्टेज पर की एक कुर्सी पर मुझे बैठा दिया गया था. मेरे राइट साइड मे "सव्वासा" जी बैठ गये थे. मेरे बाये हात की कुर्सी पर दुल्हन को बैठाया गया था. दुल्हन के लेफ्ट मे दो तिन सखिया आकर खडी हो गयी थी. सामने मंडप मे मेहमानो की आव-भगत किये जा रही थी. अब आगे घटी  घटनाओ के बारेमे जानने की कोशिश हम करेंगे. 

             दुल्हन के मंडप मे बडा ही ऊत्साह का वातावरण बना हुआ था. लाऊडस्पीकर मे फिल्मी गीत बजाये जा रहे थे. उन गीतो और संगीत की मधुर ध्वनी से कार्यकर्ता लोगों के पैर थिरक रहे थे. उन सब मे उत्साह भर गया था. किसी को किसी की बात सुने नहीं आ रही थी. उसी समय मे मेरा जिगरी मित्र भी, उसके मित्र मंडली को साथ लिये मुझसे आकर मिला. उन सबके मिलने पर मुझे बडा ही "प्राऊड" महसूस हो रहा था. "हम भी कुछ कम नही और सोशियल भी है,  यह दिखाना भी आवश्यक था. इन बातो को उस समय थोडा जादा महत्व था. क्योंकी बहुतांश "सब" अपने अपने सर्कल के बाहर विस्तार नही चाहते थे. मै "लकिर" से थोडा हटकर सोचता था. मेरा विस्तार होने मे मैने कभी संकोच नही किया. मेहमानो की "आव भगत" और "राम रमायी" होने के बाद महाराज जी की आवाज मे लाउड स्पिकर पर शादी के मंगलाष्टक सुनायी दिये. सब मेहमान सतर्क होकर नाई ने वितरित कियी हुयी "अक्षते" "सावधान" के आने पर "दुल्हा दुल्हन" की दिशासे फेकने लगे. उस पोजिशन मे सब मेहमानो की "नजरे" स्टेज की तरफ लगी रहती थी. स्टेज परके लोगोंको मेहमानो के तरफ देखने से उनके दिलमे बडी ही धाक धुक होते रहती. परंतु महाराज का मंगलाष्टको के तिन बार "सावधान" होने पर ही हम सबकी जान छुटी थी. क्योंकी ऐसे प्रसंगो का अनुभव हर एक को जिवन मे कम बार आता है. महाराज जी के उपस्थिती मे मेहमानो ने हमारी शादी लगाने  के उपरान्त ही भोजन की पंगत बैठाने के लिये मंडप खाली कर दिया गया. सब मेहमानो को "जनवासे" पर भेज दिया गया था. "जनवासा" दुल्हे के साथ आये बाराती लोगोंके ठहरने की जगह को कहते थे. उन दिनो की शादियो मे तिन,चार सौ लोगो का जम-गठ्ठा रहता था. जिस समाज की शादी हो, उसके व्यतिरिक्त समाज के लोग शादी ब्याह के प्रसंगो मे बहूत ही कम आते थे. शादी मे गिनती के ही लोग बाहर के होते थे. आज के समय मे यह बात नही रही. हर व्यक्ति और समाज ने अपने सामाजिक दायरे को विस्तार लिया है. आज के समय की शादी मे कम से कम पाच सौ से लेकर पंधरा सौ तक लोग जुट जाते है. शादी के खर्चे के बजेट भी लाखो मे पहूँच गये है. हमारे जमाने मे हर रिस्तेदार "दुल्हा दुल्हन" के भावी संसार के लिये "तांबे पितल" के बर्तन "आंदन" (दहेज) देते रहते थे. आज बर्तन देने का रिवाज बंद हो गया है. अब रूपयो की गिनती मे अपनी रिस्तेदारी और संबंधो के आधार पर  रक्कम "दुल्हा दुल्हन" को गिफ्ट दियी जाती है. होटल, लाँन्स, बँड बाजे, रोशनाई, बफे की भोजन व्यवस्था ये सब बाते आज की आवश्यकता बन गयी है. आप इन बातो से छुट नही सकते. समय बलवान है और समय ही सब कुछ सिखाता भी है. 
            हम "दुल्हा दुल्हन" भी "सव्वासे" को लिये, पास वाले मकान मे जाकर बैठ गये. इधर बरसात के डर से कार्यकर्ताओ ने स्पिड लेते हुये, भोजन की व्यवस्था मे लग गये थे. मेहमानो के लिये भोजन पट्टीया बिछा दि गयी थी. "दुल्हा सव्वासे" के लिये "लकडे के पाट" बिछाये गये थे. पत्तल परोसे गये थे. मेहमानो को "भोजन पट्टीयो" पर बिठाया गया था. सिर्फ "हम दोनो" को ही "लकडे के पाटो" पर बैठाया गया था. उस समय हमारा मान सन्मान इतना बडा था की, "दुल्हा और सव्वासे" के लिये "लकडे के पाट" बिछाये गये थे. लेकीन हम दोनो के "नशीब" ने उसी समय पर धोका दे दिया. बहूत दूर के "बडे शहर" से आये हुये "दो मेहमान" उसी समय मंडप मे पधारे थे. सब ने उनकी जल्दी जल्दी "आव भगत" करने के बाद, "हम दोनो" को आगे भोजन पट्टीयो पर सरका कर, हमारे "लकडे के पाटो" पर उन दो नये मेहमानो को बिठा दिया गया. उन मेहमानो के आव भगत मे "दुल्हा सव्वासे" के महत्व को भी भुला दिया गया था. उन लोगोके इस भेदभाव से मेरे "स्वाभिमान" को ठेस जरूर पहूँची. "जिसे मै अभी तक भुला नहीं हूँ." मानवी स्वभाव की यह विशेष कमजोरी दिखायी पडती है. हमे अगर थोडी भी उँची बात (चिज) मिल जाती है, तो हम निचे वालो के साथ "तुच्छ" सा व्यवहार करने लगते है. चाहे सामने वालो पर उसका कुछ भी असर क्यों न हो ? दुसरे दिन सुबह हम सब मेहमानो को दुल्हन के साथ बिदाई दियी गयी. अब हमारी "दमनी" मे दुल्हन और उसकी सखी थी जिन्हे लेकर हम गाँव पधारे थे.
                                                                  To be continued............
         धन्यवाद. 
  श्री रामनारायणसिंह खनवे.
    परसापूर. (महाराष्ट्र)🙏🙏🙏
(प्यारे पाठको, एक विशेष घटना को लेकर कल हम फिर मिलेंगे.)

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