बडे पिताजी और बडी माँ की धौलपूर की मेहमानी और गाँव वापसी .....
प्यारे पाठको, हमने देखा की, बडे पिताजी और बडी माँ के प्रवास के तिसरे दिन शामसे ही उन दोनोका धौलपूर पहूच कर मायके वालो से मेल मिलाप का सिलसिला शुरू हो जाता था. सब रिस्तेदार देर रात तक बडे प्रेम से उनके हालचाल पुछते रहते थे. तब तक खाना भी बनके तैयार हो जाता था. वहां साप्ताहिक बाजार सिर्फ टिमरनी मे ही भरता था. आठ दिनमे एक बार छकळा जोतकर वहां के लोग टिमरनी बाजार से आवश्यक लगनेवाली वस्तूये खरीदकर लाते थे. उसमे भी सिर्फ आलू प्याज नमक, पहनने के कपडे जैसी अत्यावश्यक चिजे ही रहती थी. इस कारण वहां के खानेमे आलूके सब्जी को प्राथमिकता दियी जाती थी. उन दिनो गाँवो मे कोई भी दुकान होती नही थी.
यह सब बाते बडे पिताजी के साथ हुये बातचित से ही मुझे मालूम पडी थी. क्योंकी यह सब मेरे जन्म के पहले कालमे घटी हुयी घटनाये थी. शुरू से ही मुझे बडे पिताजी के साथ घटी घटनाओ का बहूतही आकर्षण था. इस कारण मै बचपन के दिनोमे उनसे बारबार वार्तालाप करते रहता था और भूतकाल मे घटी हुयी उन घटनाओ को दिमाखी काम्प्युटर मे फिट करते रहता था. वही सब घटनाये जैसी की वैसी आपके साथ शेअर करते जा रहा हूँ. इसमे कोई हेरफेर का या काल्पनिकता का सवाल ही नही उठता. उन घटे पलो की यादो मे मै उलझता जा रहा हूँ.
धौलपूर मुक्काम के दुसरे दिन से ही दोनो को रिस्तेदारो के घरो से भोजन का निमंत्रन मिलना शुरू हो जाता था. भोजनमे बहुतांश हलवा पुरी, खिर पुरी या पुरण पोली बनती थी. साथमे कढी, चावल, पापड, भजिये, आलूकी सब्जी इत्यादी. दोनोको भरपेट भोजन कराया जाता था. धुपकाले के दिनोमे सबके घर आम रस और पुरण पोली प्रमुखता से बनती थी. पुरण पोली पर घी और शक्कर लेकर खानेका वहां का रिवाज था. परंतु बडे पिताजी को इतना मिठा खाने की आदत नही थी. बडे पिताजी कोई भी बात बोलकर नही करते थे. सामने वाले को पता भी नही चलता की इनको क्या पसंद है और क्या नही.
सुबह शाम बडे पिताजी धौलपूर वालोके खेतमे बने खलेमे जाकर बैलोके चारा पानी की व्यवस्था को भी देख लिया करते थे. वहां के सालदार बैलो को खरारा, ढेप, पानी पिलाने का कार्य बखुबी अच्छी तरह से निभा रहे थे. आठ दिन के लिये बडे पिताजी बैलो के तरफ से टेन्शन मुक्त हो जाते थे. बडे पिताजी को बैल बदलना हो तो यहां के ही नये खोंड पिताजी को मुफ्त मे मिल जाते थे. गाय बैलोसे संबंधित बहूत सी बाते बडे पिताजी वहीं से ही देख सुनकर आते थे. हर साल होली के बाद गाय बैलो के लिये खेत बाडीमे खल्ला बनाकर धुपकाले भर सब जानवर वहीं खलेमे रखने की पद्धत बडे पिताजी ने धौलपूर से ही लायी थी. इन आठ दिनो मे बडे पिताजी आस पास के गाँवो मे बसे धौलपूर वालो के रिस्तेदारो को भी मिल आते थे. उसमे भी छकळे से टिमरनी के साप्ताहिक बाजार जाने को उनका प्राधान्य रहता था. उसी बाजार मे आस पास के रिस्तेदारो का मेल मिलाप, मुलाखाते भी होते रहती थी.
अब तक छकळे का अर्थ आपके समझमे आ ही गया होगा. बैल गाडी का छोटा रूप जिसमे तिन चार लोगो के लिये ही बैठने की जगह होती थी. बैलो के लिये हल्का फुलका काम होने से वे दौड भी अच्छी लगा सकते थे. बैलो को पल्ला भगाकर जल्दी से वांछित स्थल पर पहूचना इस छकळे से सुलभ हो जाता था.
इस तरह बडी माँ के मायके के आठ दिन कब निकल जाते थे पता ही नही चलता था. आठ दिन की मेहमानी होनेके बाद बडे पिताजी और बडी माँ गाँव वापसी के लिये बडे सुबह ही अपने छकळे पर सवार होकर निकल पडते थे. साथमे गाँव ले जानेके लिये बडी माँ के मायके से कुछ दाले, नयी फसलोके बिज, पेडोकी कलमे, गाय का असली घी इस तरह की चिजे दियी जाती थी. गाँव वापसी के पहले दिन से ही बैलो को पता चल जाता था की अब अपने गाँव को ही चलना है, तो उनको थोडा भी हूँ करो तो पल्ला लगा लेते थे. जैसा उन्हे भी गाँव जाने की जल्दी होती थी. इस तरह चिरा पाटला के ज॔गलो से होते हुये पहली रात का मुक्काम भिमपूर नांदा गाँवो के सहारे ही किया जाता था.
दुसरे दिन सुबह होते ही नदी पार के किर्र घने ज॔गलो से होते हुये दोनो दिल थामे भैसदेही चिचोली गाँव के रास्ते आगे बढते रहते थे. सिर्फ बैलो के गले की घंटी और घुंगरूओ के आवाज ही उन्हे धाडस ब॔धाते रहते थे. बैलो को भी कैसे पता चलता क्या मालूम, वे भी रूकने का नाम ही नही लेते थे. वे भी चिचोली गाँव पहूच कर ही दम लेना चाहते थे और इस तरह शेर, चितो के फेरोसे निकलकर सुरज ढलने के पहले तक उनका छकळा चिचोली गाँव पहूच जाता था.
वहां दुसरी रात निकालकर तिसरे रोज बडी सुबह ही उनका छकळा जल्दी से गाँव पहूचने की आस लेकर चिचोली से निकल पडता था. सिर्फ दोपहर मे बिच रास्ते मे पडने वाले बहिरम बाबा के दर्शन लेते हुये तिसरे दिन शाम को बडे पिताजी और बडी माँ हमारे पैतृक गाँव पहूचते थे. तब कही उन दोनोके मनको तसल्ली मिलती थी.
धन्यवाद.
श्री रामनारायणसिंह खनवे.
परसापूर. (महाराष्ट्र) 🙏 🙏 🙏
आप हमारे लिए दादाजी के जिदंगी की उनके साथ घटीत घटनाए तथा उनका उस समय का पारिवारिक मेलमिलाप एंव रिश्ते नाते को उन्होने कैसे संभाला होगा की जिस दौर मे ना की पक्की डांबर वाली सडक थी या तो फोन या चिठ्ठी का भी चलन नही था। फीर भी उन्होने अपने ससुराल गांव का लंबा सफर दोनो बैलोके सहारे तथा दादीजी का दादाजी के प्रती प्रेम एंव विश्वास भरोसा और उस जमाने मे भी दादाजी का कुछ बातो का आदान प्रदान करना यह हमे बहुत कुछ सिखा रही है।
जवाब देंहटाएंआप हमारे लिए बहुत अच्छा लिख रहे है। और इसके बाद आप कौनसी घटना आप हमारे लिए लाओगे इसका हम सब बडी बेसब्रीसे इंतजार कर रहे है।
आपका पाठक